23 अग॰ 2022

गुस्ताख़-ए-लोकतंत्र की क्या सजा

 थाली में तीन रोटी ली, कटोरी में ली सब्जी

रात का वक़्त, टी वी ऑन किया, बैठ गया
और लगा लिया मेरा पसंदीदा ndtv इंडिया
क्योंकि वंहा शोर शराबा थोड़ा कम रहता है

पुलिस जेल बंद लड़को को लाठियो से कूट रही थी
लड़के मिमियां रहे थे, चीख रहे थे चिल्ला रहे थे
कैमरे के सामने लड़कों की माएँ बिलख रही थी
एंकर नगमा शहर ने बताया फिर मामला समझाया

ये वही लड़के थे जो सड़को पर पत्थर चला रहे थे
तथाकथित प्रदर्शन के नाम पर उपद्रव फैला रहे थे
"गुस्ताख़ ए रसूल की एक सजा सर तन से जुदा
सर तन से जुदा" कितना कवितामय पंक्ति है ये
सड़को पर दोहरा रहे थे

कुटे गए बेचारे, कोई अपना टूटा हाथ दिखा रो रहा
कोई यूँ ही रहा था बिलख, किसी की लाल थी खाल

जो हुआ बुरा हुआ गलत हुआ, पुलिस का ये कोई काम नही
ये कोई गंगाजल फ़िल्म की शूटिंग नही, और ये पुलिस वो यादव नही
ये कोई जज नही, सजा सुनाना इनका काम नही
और ये मालूम है मुझे की वे भी इस बात से अनजान नही

जो हुआ, गलत हुआ, दोनों ने किया, वो गलत किया

लेकिन मेरा प्रश्न बस इतना है,
मैंने जितना भी जाना है, मैंने जितना भी पढ़ा है
कभी भी भारत की ऐसी संस्कृति रही नही
यंहा बुद्ध हुए महावीर हुए नानक हुए कबीर हुए
और न जाने कितने ही बुद्धि के वीर हुए

इन्होंने कितने ही विचारों का खंडन किया
कई प्रथाओं का उनके तन से मुंडन किया
अपने विचारों का इस जग में गुंजन किया
अपनी शिक्षाओं का यंहा पर मंचन किया

लोगो ने देखा परखा, विचार किया
जिन्हें समझ न आया आगे बढ़े, जिन्होंने समझा, स्वीकार किया
यँहा राम आज भी ताने सुनते हैं,
कृष्ण को आज भी उलाहने दिए जाते हैं

एक ऐसे भारत मे, "सर तन से जुदा" जैसे नारे कँहा से आये
किसने है बहकाया, कँहा से बहक के है ये आये

किसी ने कुछ गलत कहा तो तर्क करो, वितर्क करो
ये क्या बात हो गयी," सर तन से जुदा, सर तन से जुदा"
एक लोकतंत्र में ऐसा कहना लोकतंत्र की आत्मा के है खिलाफ
अगर कुछ गलत किया किसी ने तो रास्ते तो है उसके
उसको अपनाओ, नाराजगी है, ठीक है, शौक जताओ
लेकिन उपद्रव करना सही नही, किसी की हत्या का बयान देना सही नही

जब हाथ टूटी, दर्द हुआ न, जिस्म लाल हुआ, दर्द हुआ न,
तुम्हारे दर्द से तुम्हारे घरवाले रोये न,
तो फिर यही सब दुसरो के लिए कैसे सोच सकते हो
किसने इतना ज़हर भर दिया तुम्हारे भीतर

अगर गुस्ताख़ ए रसूल की सजा, सर तन से जुदा है
फिर गुस्ताख़ ए लोकतंत्र, गुस्ताख़ ए संविधान कि सजा क्या?

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